Monday, August 17, 2020

बेटी के जन्मदिवस पर पिता का अमूल्य उपहार


दिन बीते, महीने बीते,

आखिर साल भी बीत गया।

कब आई उन्तीस जनवरी,

मैं गिनती भी भूल गया।

आज का दिन है बड़ा मुबारक,

मेरे छोटे जीवन में।

बरसों पहले एक कली,

मुस्काई थी इस उपवन में।

महेक उठी थी सुनी बगीया,

चहेक उठा था आंगन।

खुशियां ईतनी बरसी कि,

हम भूल गए थे सावन।

आज वही शुभ जन्मदिवस है,

गीत खुशी के गाएं।

ईश्वर से हम करे प्रार्थना,

दें तुम्हें आशिष और दुआएं।

सुख-शांति का संग रहे,

और भागे तुम से दूर बलाएं।

और तुम्हें क्या दे सकते हम,
कुछ तो अपने पास नही।

हंसते-खेलते तुम्हे हम देखें,

इससे बढ़कर आस नहीं।

कोषा खूब तुम्हे आशिष है,

आमा, बाबा और मम्मी से।

प्यार-दुलार और ढेर से आशिष,

करते पापा अपनी मुन्नी से।

 

राज-कर

--

Attachments area

Monday, August 11, 2014

रघुवीर यादव

रंगमंच के कलाकार रघुवीर यादव जब मुंगेरी लाल बनकर हसीन सपने दिखाते हैं तो कहीं मुल्ला नसरुद्दीन बनकर मिर्ज़ा के रंग में भंग डालते हैं या फिर मैसी साहब बनकर नकली वाउचर्स बनाने का आइडिया देते हैं। वहीं पर लगान का भूरा जब हिटलर की भूमिका में आता है तो वह उसके अनछुए पहलू से प्रभावित हो उठता है।




मुल्ला नसरुद्दीन धारावाहिक में जोहरा सहगल के साथ काम करने का मौका मिला? कैसा लगा?
बहुत ही अच्छा। जोहरा जी रंगमंच की बहुत ही मंझी हुई अदाकार थी। वह 14 साल तक पृथ्वी थिएटर के साथ सक्रिय रहीं । जोहरा जी बहुत ज़िंदादिल इंसान और स्फूर्ति से लबरेज थीं। इसकी शूटिग मई-जून के महीने में हो रही थी वो भी राजस्थान में। आप तो जानते हैं कि राजस्थान की गर्मी कैसी होती है, लेकिन उस वक्त वह बहुत हंसी-खुशी के साथ अपना काम किया करती थीं। उस उम्र में उनकी ऊर्ज़ा को देLकर हम जैसे नौ जवानों को पसीना आ जाता था। जब कि रिहर्सल करते वक्त वे उतनी ही ऊर्ज़ावान दिखाई देती थीं। उनके काम करने का तरीका बहुत ही बेहतरीन था। वे रंगमंच की कलाकार भी थीं, इसलिए वे रिहर्सल की बारिकियों पर भी बहुत ध्यान देती थीं। उनसे हमें बहुत कुछ सीखने को मिला।

क्लब- 6० में फारूख शेख के साथ काम करना कैसा रहा ?
बहुत ही बेहतरीन इंसान थे। उनके साथ भी काम करने का मौका मिला बहुत ही अच्छा अनुभव था। वे बहुत ही शांत और अच्छे स्वभाव के थे। मुझे उनकी एक बात बहुत अच्छी लगती थी, किसी भी तरह का तनाव का माहौल हो जाता था पर वो कभी अपना टेम्पर लूज़ नहीं करते थे, बल्कि शांत रहते थे।

आपने आमिर के साथ लगान, पिपली लाइव जैसी फिल्में की है। आमिर खान को मि. पर्फेक्शनिस्ट कहते हैं, आप इस बात से कितना सहमत हैं ?
बिल्कुल सहमत हूं। उन्होंने कई फिल्में प्रोड्यूस की हैं और उनके काम करने का तरीका भी बहुत अलग है। वे अपनी पूरी यूनिट का ख्याल रखते हैं, यह बात दूसरों प्रोड्यूसरों में कम दिखाई देती है। इतना ही नहीं, फिल्म की बेहतरी के लिए यूनिट के छोटे से छोटे व्यक्ति की राय लेते हैं। जो बोल दिया वही फाइनल हो गया, उनके अंदर कभी भी ऐसी भावना नहीं आती।

जयपुर आना और यहां रविन्द्र मंच पर बच्चों के साथ काम करने के अनुभव के बारे में कुछ बताइए।
यहां आना बहुत अच्छा लगा। मैं बहुत दिनों के बाद थिएटर की ओर आया हूं, लेकिन मैं अबकी बार प्ले में म्यूज़िक दे रहा हूं और इसी सिलसिले में जयपुर आना हुआ। बच्चे भी बहुत मेहनत और लगन से काम कर रहे हैं। य़ह देखकर बहुत खुशी हुई।

आप रंगमंच के कलाकार हैं और आपने हिदी कॉमर्शियल और धारावी, मैसी साहब, माया मेमसाहब जैसी ऑफबीट फिल्मों में भी काम किया है। अब ऑफबीट फिल्में ज्यादा नहीं बनती, इसकी क्या वजह है?
लोगों ने फिल्मों को कॉमर्शियल बिजनेस बना दिया है। ऐसा नहीं कि कहानी नहीं है। हमारे हिदुस्तान में कहानियों की कमी नहीं। गली-महोल्ले-कस्बे-गांव में हर जगह कहानी मिलती है। अगर कोई करना चाहे तो बहुत कुछ कर सकते हैं। लोग अब भी अच्छी स्क्रिप्ट ला सकते हैं। पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अब भी लिखा जा रहा है। जाहिर है कि पढ़ने-लिखने का भी एक दायरा होता है। पहले भी तो लोग लिखते रहे हैं और अब भी लोग लिख रहे हैं। साउथ और हॉलीवुड की फिल्में कॉपी कर रहे हैं और यही वजह है कि फिल्मों में गिरावट होने लगी है वो भी क्वॉलिटी वाइस।
   
ऐसा सुना है कि आप अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं ?
हां जी। लिखने की कोशिश कर रहा हूं। थोड़ा बहुत लिखा है, जल्दी ही लिखूंगा।

आपने फिल्म गांधी टू हिटलर में हिटलर की भूमिका की थी, इस फिल्म में हिटलर का कौन-सा पहलू आपको प्रभावित कर गया?
आमतौर पर हम हिटलर को क्रूर और तानाशाह मानते हैं, लेकिन मुझे हिटलर के अंदर एक ऐसा इंसान दिखा जो अपने वतन के लिए कुछ भी करने को तैयार था। अपने वतन की खूबसूरती के लिए उसने बहुत सारे काम किए। जैसे कि सुंदर पुल बनवाए और बाद में तोड़ दिए गए। हिटलर ने मरने से पहले अपनी प्रेमिका इवा ब्राउन से शादी की। वह नहीं चाहता था कि मरने के बाद उसकी प्रेमिका की दुर्गति और बदनामी हो। अपने वतन और अपनों के लिए वह कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहता था। उसका इस पहलू से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ।

आप कल्याण सिरवी की फिल्म साको-363 के बारे में कुछ बताइए।
हां, एक साल पहले की शूटिग की थी। यह राजस्थान पर आधारित फिल्म ह, लेकिन अभी इसका कुछ पता नहीं।


 

Tuesday, November 19, 2013



  
 
यादों में बसा शहर

इंट्रो यादों के गलियारे में बसे शहर की तासीर सर्द रातों में गर्माहट भर देती है और ज़िंदगी में ज़िंदादिली और जोश का संचार कर जाती है।

 
ज़ेहन में जब यादों के दरीचे खुलते हैं, ख्यालों में एक पुराने शहर की तस्वीर उभर आती है। वो शहर, कोई अनजाना-भूला-बिसरा-शहर नहीं, वहां की इमारतें-रास्ते मेरे लिए अपरिचित़, अचीन्हे नहीं। ये शहर है- अहमदाबाद। इतिहास की पुरानी किताबों में यहां का बयां कुछ यूं मिलता है कि 11वीं सदी में अहमदाबाद को आशापल्ली या आशावल के रूप में जाना जाता था और किसी भील राजा का शासन था़। इसे पाटन के सोलंकी शासक-करण देव ने युद्ध में भील को हराकर जीत लिया। इसके बाद 13वीं सदी के अंत में, गुजरात पर दिल्ली सल्तनत द्वारा कब्जा कर लिया गया। गुजरात के सुल्तानों द्वारा बनवाए अनेक भवन आज भी हिन्दू-मुस्लिम वास्तु कला के सुंदर उदाहरण हैं।
इतिहास की परतों में, वास्तुकारों की नज़रों में इस शहर के बयान जो भी हों, मेरे लिए अहमदाबाद जाने के मायने बचपन में लौटने की तरह है। अक्सर मन करता है कि चिड़िया की तरह पंख लग जाएं और उड़ कर वहीं पहुंच जाऊं। संगी-साथियों से मिलूं और मीठी यादों को ताजा करूं। याद करूं बचपन के वे दिन, जब सब मिलकर खूब मटरगश्ती करते थे और खाते थे दादी की डांट। उस डांट का भी अपना ही मजा होता था। स्कूल जाते समय दादाजी की साइकिल के पीछे बैठकर उन्हें परेशान करते हुए कहना कि बाबा मेरा जूता गिर गया या फिर मेरा बैग गिर रहा है। आज भी याद आता है दरियापुर का वो मोहल्ला, जहां सुबह-सुबह जलेबी, खमण, पातरा- (जिसे पतोड़ के पत्ते की पकौडी़ कहते हैं,) गरमा-गरम दाल और मेथी की पकौड़ियां के साथ कच्चे पपीते की चटनी का लुत्फ लेना- सोचकर ही मुंह में पानी आने लगता है, लेकिन गुजरे वक्त में इसे महसूस नहीं कर पाती थी, जिस तरह आज कर रही हूं। वहां आज भी सुबह-सुबह ये सारी चीजें बनती है, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं वहां नहीं हूं। अब जब बच्चों की शरारतों को देखकर बचपन की याद आती है तो हंसी छूट जाती है। आज जैसी आज़ादी तब मिली न थी, पर हम भी पिंजरे में कैद रहने वाले परिंदे कहां थे। अक्सर यही सब होता- बाज़ार में घूमना, शहर की खूबसूरती को निहारना और क्लासेज से बंक कर दोस्तों के साथ फिल्म देखने जाना। नवरात्रि के लिए लॉ गार्डन नाम के बाज़ार में जाकर पसंदीदा लहंगा- जिसे गुजराती में चणिया-चोली बोलते हैं, खरीदना और डांडिया खेलने जाना। इसके बाद रात में माणक चौक जाकर भेलपुरी, गोलगप्पे, लस्सी का जायका लेने जाना। नाश्ते का यह बाज़ार सिर्फ रात में ही लगता है, क्योंकि दिन में वहां सोने-चांदी के जेवरों का काम होता है। कितने मज़ेदार थे, वो अल्हड़पन के दिन, जिन्हें याद करते दिल रोमांचित हो जाता है। काश, वक्त वहीं रुक जाता, लेकिन ऐसा होता नहीं। भागते-भागते जाने, न जाने कौन-सी मंज़िल छू लेने की होड़ के बीच- यादों की रेजगारी बिखरती ही जा रही है, पर दिल की गुल्लक है कि बार-बार उसे समेट लेने को बेताब है। आपने भी संभाल रखी हैं न यादें? बिखरने न दीजिएगा ये बेशकीमती दौलत...
इस शहर में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का स्वागत मुस्लिम किया करते, वहीं हिंदू मोहर्रम में ताजियों की रखवाली करते। यूं ही एक-दूसरे के त्योहार और सुख-दुख आपस में बांटते। कुछ मुस्लिम सहेलियां थी, जिनके साथ स्कूल आना-जाना होता था। इतना ही नहीं, परिवार वालों का एक-दूसरे पर उतना ही विश्वास था। न जाने किसकी बुरी नज़र लग गई इस शहर को, जो सांप्रदायिकता के जाल में फंस गया। उस वक्त स्कूल चल रहा था और अंग्रेजी पढ़ाने के लिए सर आने ही वाले थे कि नोटिस आया शहर में दंगा-फसाद हो गया है। हम बच्चे क्या जाने ये लड़ाई-दंगे-फसाद, क्या होता है।
उन दंगों में हिंदू और मुसलमान दोनों का बराबर नुकसान हुआ। इसके बावजूद हम सारी सहेलियां मिलकर स्कूल जाती थी।
आज भी यूं ही बरकरार है भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का स्वागत और ताजियों की रखवाली करना। 

- कोषा गुरुंग


Saturday, August 4, 2012

पिता की राजदुलारियां




प्राचीन ग्रीक नाटककार यूरीपिडिस ने एकबार लिखा था, बेटों के पास ऊंचाई पर पहुंचने का जोश है, लेकिन वे प्यार नहीं दे सकते। पिता के लिए बेटी से प्यारा कुछ भी नहीं
अभिनेत्री एंजेलिना ने अपने पिता को माफ करके फादर्स डे का एक नायाब तोहफा दिया है। अभिनेत्री एंजेलिना जोली और उनके पिता के बीच सात सालों तक मनमुटाव रहा था; एंजेलिना के इस फैसले से एक बात को साफ हो जाती है कि बेटियां आखिरीकार, पिता की होती हैं। चाहे पश्चिम हो या पूरब या उत्तर या दक्षिण कहीं भी जाएं खून के रिश्ते यूं ही नहीं टूटते। हम सोचते हैं कि पश्चिम में रिश्तों की अहमियत को नहीं समझा जाता, परंतु जोली के उदाहरण से जाहिर होता है कि दुनिया में रिश्तों के मायने कुछ हद तक अभी भी कायम है और पिता-बेटी का रिश्ता तो संवेदनाओं से सराबोर होता है, इसीलिए तो बेटियां हमेशा अपने पिता की लाड़ली होती हैं! खैर, यह सच भी है, मानवीय संबंधों में पिता और बेटी का रिश्ता प्यार, देखभाल, आदर और मित्रता का होता है। इस दुनिया में पिता और बेटी के रिश्ते की तुलना किसी भी रिश्‍ते से नहीं की जा सकती। बच्चे की ज़िंदगी में पिता की मौजूदगी बहुत महत्वपूर्ण होती है, लेकिन एक बेटी के जीवन में पिता की भूमिका भी बहुत मायने रखती है।  एक लड़की के जीवन का अभिन्न रूप है पिता, जो उसके लिए सुरक्षा की अनुभूति देता है उसके जीवन में रोल मोडल बनकर आने वाला पिता ही पहला पुरुष होता है। दुनिया के सारे पुरुष उसके पिता की तरह ही होंगे वह ऐसा महसूस करती है। बचपन से किशोरावस्था और युवावस्था तक वह उसके जीवन में प्रभावशाली भूमिका अदा करता है। अमेरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की बेटी चेल्सी अपने पिता के बारे में बताती हैं कि बिल उससे बहुत प्यार करते हैं जब वे अरकंसास के गर्वनर चुने गए तब उन्होंने अपने ऑफिस में मेरे के लिए छोटा सा डेस्क रखवाया था, क्‍योंकि मैं बचपन से ही पढ़ाई में बहुत तेज थी और  नाटकों और बैलेट में भी मेरी रुचि थी दूसरी लड़कियों की तरह मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती थी। मेरे किशोरावस्‍था में कदम रखते ही उन्‍हें मेरी बहुस चिंता होने लगी और इसकी वजह थी दोस्‍तों के साथ देर रात मेरा घूमना. वे तब तक मेरा इंतजार करते थे जब तक की मैं घर जाऊं। मोनिका लेवेंस्की विवाद के वक्त  मैं स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में थी, उस तनाव भरे माहौल में मैं अपने पिता के साथ ड़े होकर उनका साथ दिया और अपने परिवार को संतुलित बनाने में अहम भूमिका निभाई इस मिसाल से यह बात सामने आती है कि जिस तरह पिता बड़े प्यार से अपने बच्चों का ख्याल रखते हैं, ठीक उसी तरह बच्चे भी पिता का ध्यान रखते हैं और इनमें बेटियों की भूमिका का शुमार महत्वपूर्ण होता है। दुनिया के तकरीबन सभी मनोवैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिक लिंडा नेल्सन कहती हैं
मेरे 30 साल के अनुभवों के मुताबिक अधिकतर पिता किशोरावस्था पुत्रियों को ज्यादा समझ नहीं पाते और न ही उनके साथ उतना समय बिताते हैं या फिर एक-दूसरे से सहज रूप से बात नहीं कर सकते है कि जितना मां के साथ करते है, क्‍योंकि मां का प्रभाव बेटी के स्कूल की उपलब्धि, भविष्य की नौकरी या आय, पुरुष के साथ रिश्ते, आत्म विश्वास और मानसिक तौर पर जितना होता है उतना पिता का नहीं होता है। इसकी वजह यह हो सकती है कि कई बार बेटी के मन में पिता के बारे में नकारात्मक मान्यताएं घर कर लेती है। इसके लिए पिता और बेटी को अपने बीच की दूरियों को कम करना होगा। पिता को चाहिए कि वह  बेटी को समझें और उसे सुनें। उसकी निजी बातों को सुनकर सही सलाह दें ताकि इस रिश्ते में प्यार और विश्वास की खाद मिलकर मजबूती आए। कई बार ऐसा भी होता है कि अधिकतर पिता बेटियों के साथ सहज नहीं हो पाते, इसलिए उन्हें पौधों की छंटाई, स्पेशल खाना बनाना, या फिर ताश खेलना ऐसी गतिविधियों में हिस्सा लेना चाहिए, जिससे कि दोनों में सहजता सके। उन्हें बेटी के जन्मदिन में उपहार देने चाहिए और साथ ही एक छोटी सी पार्टी देकर उसे महसू करवाएं कि वह आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यूं इस तरह उसके जन्मदिन को एक यादगार बनाएं। उसे स्कूटर चलाना या नई-नई किताबें पढऩा, जो उसे दुनिया की जानकारी दे सके या कार की मरम्मत, गोल्फ खेलना, घर की सजावट या देखभाल जैसी नई-नई चीजें सीखा सकते हैं और किसी भी परिस्थिति का आसानी से मुकाबला करने में सक्षम है, उसके अंदर आत्‍मविश्‍वास जगाएं। उसे अपने बचपन, किशोरावस्था और जवानी की फोटो दिखाएं और उस फोटो के पीछे की कहानी भी सुनाएं। इस रिश्ते की मजबूती के लिए उन्हें अपने अनुभवों को एक-दूसरे से बांटना चाहिए। जब लड़की किशोरावस्था में आती है तो उसमें शारीरिक और मानसिक रूप से कई बदलाव आते हैं, जिसे समझने के लिए सिर्फ मां ही नहीं, बल्कि पिता को भी तैयार रहना पड़ता है।
 डॉ. मीकर का कहना है, बेटी के जीवन को अच्छा या बुरा बनाने की विशाल शक्ति पिता के पास ही होती है, जो उसकी पहचान के लिए जरूरी है। वह सबसे महत्वपूर्ण मार्गदर्शक, रक्षक, संरक्षक, मित्र, जो बड़े प्यार और सुरक्षात्मक माहौल में उसका पालन-पोषण करता है। जीवन के विभिन्‍न स्‍तर पर वह अपने पिता की बहुरूपदर्शी भूमिकाएं देखती हैं। उदाहरण के तौर पर जैसे नंदिता दास अपने पिता जतीन दास के बारे में बताती हैं कि जब मेरी मां ऑफिस जाती थीं और मेरे पिताजी घर की और मेरी देखभाल करने के लिए घर पर रहते थे। तब मैं ऐसा सोचती थी कि क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि हरेक पिता घर का काम करता और मनोरंजन के लिए पेंटिंग कर लेता, जबकि हरेक मां ऑफिस जाती। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे बहुत खुशी होती है कि बहुत छोटी सी उम्र में मेरे दिमाग में इस रूढिवादीता को तोडऩे वाले विचार चुके थे। वास्तव में मेरे पिताजी की रचनात्मकता रसोई में व्याप्त हो गई थी। इसका मतलब है कि मेरे नाश्ते में अंकुरित अनाज, भूरी ब्रेड, सेव के टूकड़े या फिर सब्जियां होती थी, जिसे पहले किसी ने भी नहीं पकाया था। दोस्तों को भी मेरा नाश्ता बहुत पसंद आता और वे लोग खुश होकर मेरा नाश्ता खाते थे। जब मैं उनकी रोटी-सब्जी-अचार को खाती थी, जो कि मेरे लिए सही मायनों में घर का खाना होता था। नंदिता अपने पिताजी के बारे में बताती हैं कि वे हमेशा जीवन की क्षणिक खुशियों को देखते थे। उन्होंने कभी भी अपने जीवन में रुपयों को अहमियत नहीं दी उनके दर्शन ने मुझे दृढ़ साहस और पसंद की आजादी दी थी। उन्होंने ईमानदारी, समानता और संवेदशील जैसे मूल्यों की शिक्षा दी मैं अपने पिता की बहुत आभारी हूं, क्योंकि उन्होंने हमारे अंदर मूल्यों का सिंचन किया है। जब मैंने उन्हें फिल्म से जुडऩे की बात कही तो उन्होंने सामान्य पिता की तरह मुझे कहा : फिल्में ड्रेगन की तरह हैं, वे तुम्हें चूस लेंगी और रुपयों प्रसिद्धि के लिए तुम्हें बहकाएंगी। काम का मतलब कुछ ऐसा करना, जो तुम्हें आनंद और ज़िंदगी के मायनों को समझने सबसे बढ़कर आपको एक अच्छा इन्सान बनने में मदद करता है। इन उदाहरणों से जाहिर होता है कि पिता बेटी के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कुछ ऐसे किस्से भी हैं, जिनमें पिता के लिए बेटी महत्वपूर्ण होती हैं। ऐसे ही एक पिता हैं मशहूर सितार वादक पंडित रविशंकर महाराज, जिनके लिए उनकी बेटियां अनुष्का और नौरा उनका अभिमान है। वे अनुष्का के लिए बताते हैं, वह बहुत ही प्रखर दिमाग और बहुल प्रतिभावान है। मैं ऐसा इसलिए नहीं बोल रहा कि मेरी बेटी है, लेकिन उसकी गहन क्षमता की वजह से बोल रहा हूं। जैसे कि उसका लेखन, पश्चिमी या शास्त्रीय संगीत या अभिनय या हास्यास्पद चाहे कुछ भी हो वह सबकुछ असाधारण रूप से करती है। जब वह 9 साल की तब से ही उसकी यह प्रतिभा विकसित हो गई थी, जो आज मेरे लिए आनंद की अनुभूति है। नौरा बहुत भाग्यशाली है और उसके सितारे भी बहुत ताकतवर है। मुझे बहुत खुशी होती है, जब उसे अपने लक्ष्य पर केन्द्रित देखता हूं। वह बहुत अच्छी है और मैं इसे इसी रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता हूं। इसमें कोसंदेह नहीं कि पिता का प्रभाव बेटी की ज़िंदगी में शक्ति भर देता है। सिर्फ वही है, जो उसके निजी मूल्यों को बदल सकता है और भविष्य में मिलने वाले दूसरे पुरुष के प्रति उसके मानकों का ढांचा बनाता है - जैसे कि पुरुष मित्र, पेशेवरों, सहकर्मी, दोस्त और पति और वह पुरुष जिसके साथ खुद को सुरक्षित, सलाह और प्यार करती है।
सचमुच पिता और बेटी के बीच संवेदनाएं होती जो इस रिश्ते को बांधे रखती है। हालांकि इस रिश्ते को समझाना बहुत मुश्किल है। यह एक खास प्रकार की सुरक्षा है, जब आप अपनी बच्ची को पहली बार हाथ में उठाते हैं। आप संतुलन बनाते हुए एक सुरक्षा के साथ उन्हें विकसित होकर अपने पंखों से उडऩे में मदद करते हैं, लेकिन यह मायने नहीं रखता कि वे इसे कब पूरा करते हैं। आखिरकार, वे होती तो हैं पिता की लाडलियां!