यादों में बसा शहर
इंट्रो – यादों के
गलियारे में बसे शहर की तासीर सर्द रातों में गर्माहट भर देती है और ज़िंदगी में
ज़िंदादिली और जोश का संचार कर जाती है।
ज़ेहन में जब यादों के दरीचे खुलते हैं, ख्यालों में एक
पुराने शहर की तस्वीर उभर आती है। वो शहर, कोई अनजाना-भूला-बिसरा-शहर नहीं, वहां
की इमारतें-रास्ते मेरे लिए अपरिचित़, अचीन्हे नहीं। ये शहर है- अहमदाबाद। इतिहास
की पुरानी किताबों में यहां का बयां कुछ यूं मिलता है कि 11वीं सदी में अहमदाबाद
को आशापल्ली या आशावल के रूप में जाना जाता था और किसी भील राजा का शासन था़। इसे
पाटन के सोलंकी शासक-करण देव ने युद्ध में भील को हराकर जीत लिया। इसके बाद 13वीं
सदी के अंत में, गुजरात पर दिल्ली सल्तनत द्वारा कब्जा कर लिया गया। गुजरात के
सुल्तानों द्वारा बनवाए अनेक भवन आज भी हिन्दू-मुस्लिम वास्तु कला के सुंदर उदाहरण
हैं।
इतिहास की परतों में, वास्तुकारों की नज़रों में इस शहर के
बयान जो भी हों, मेरे लिए अहमदाबाद जाने के मायने बचपन में लौटने की तरह है। अक्सर
मन करता है कि चिड़िया की तरह पंख लग जाएं और उड़ कर वहीं पहुंच जाऊं।
संगी-साथियों से मिलूं और मीठी यादों को ताजा करूं। याद करूं बचपन के वे दिन, जब
सब मिलकर खूब मटरगश्ती करते थे और खाते थे दादी की डांट। उस डांट का भी अपना ही
मजा होता था। स्कूल जाते समय दादाजी की साइकिल के पीछे बैठकर उन्हें परेशान करते
हुए कहना कि बाबा मेरा जूता गिर गया या फिर मेरा बैग गिर रहा है। आज भी याद आता है
दरियापुर का वो मोहल्ला, जहां सुबह-सुबह जलेबी, खमण, पातरा- (जिसे पतोड़ के पत्ते
की पकौडी़ कहते हैं,) गरमा-गरम दाल और मेथी की पकौड़ियां के साथ कच्चे पपीते की
चटनी का लुत्फ लेना- सोचकर ही मुंह में पानी आने लगता है, लेकिन गुजरे वक्त में इसे
महसूस नहीं कर पाती थी, जिस तरह आज कर रही हूं। वहां आज भी सुबह-सुबह ये सारी चीजें
बनती है, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं वहां नहीं हूं। अब जब बच्चों की शरारतों को
देखकर बचपन की याद आती है तो हंसी छूट जाती है। आज जैसी आज़ादी तब मिली न थी, पर
हम भी पिंजरे में कैद रहने वाले परिंदे कहां थे। अक्सर यही सब होता- बाज़ार में
घूमना, शहर की खूबसूरती को निहारना और क्लासेज से बंक कर दोस्तों के साथ फिल्म
देखने जाना। नवरात्रि के लिए लॉ गार्डन नाम के बाज़ार में जाकर पसंदीदा लहंगा- जिसे
गुजराती में चणिया-चोली बोलते हैं, खरीदना और डांडिया खेलने जाना। इसके बाद रात
में माणक चौक जाकर भेलपुरी, गोलगप्पे, लस्सी का जायका लेने जाना। नाश्ते का यह बाज़ार
सिर्फ रात में ही लगता है, क्योंकि दिन में वहां सोने-चांदी के जेवरों का काम होता
है। कितने मज़ेदार थे, वो अल्हड़पन के दिन, जिन्हें याद करते दिल रोमांचित हो जाता
है। काश, वक्त वहीं रुक जाता, लेकिन ऐसा होता नहीं। भागते-भागते जाने, न जाने
कौन-सी मंज़िल छू लेने की होड़ के बीच- यादों की रेजगारी बिखरती ही जा रही है, पर
दिल की गुल्लक है कि बार-बार उसे समेट लेने को बेताब है। आपने भी संभाल रखी हैं न
यादें? बिखरने न दीजिएगा ये बेशकीमती दौलत...
इस शहर में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का स्वागत मुस्लिम
किया करते, वहीं हिंदू मोहर्रम में ताजियों की रखवाली करते। यूं ही एक-दूसरे के
त्योहार और सुख-दुख आपस में बांटते। कुछ मुस्लिम सहेलियां थी, जिनके साथ स्कूल
आना-जाना होता था। इतना ही नहीं, परिवार वालों का एक-दूसरे पर उतना ही विश्वास था।
न जाने किसकी बुरी नज़र लग गई इस शहर को, जो सांप्रदायिकता के जाल में फंस गया। उस
वक्त स्कूल चल रहा था और अंग्रेजी पढ़ाने के लिए सर आने ही वाले थे कि नोटिस आया
शहर में दंगा-फसाद हो गया है। हम बच्चे क्या जाने ये लड़ाई-दंगे-फसाद, क्या होता
है।
उन दंगों में हिंदू और मुसलमान दोनों का बराबर नुकसान हुआ।
इसके बावजूद हम सारी सहेलियां मिलकर स्कूल जाती थी।
आज भी यूं ही बरकरार है भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का
स्वागत और ताजियों की रखवाली करना।
- कोषा गुरुंग
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